ark vani
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हर दिन निकलता हूँ
एक मंजिल की तलाश में –
ठोकरें खाता, गिरता, फिर संभलता
रास्ते हँसते हैं
जैसे मेरे दीवानेपन का एहसास करते हैं
फिर कई प्रश्न लिए जहन में
लौट आता हूँ फिर उसी घुटन में….
कौन हूँ मैं ?
किसे जरुरत है मेरी?
शायद उसी कि तलाश में हूँ –
वो ही, जो मेरे प्रश्नों का, मेरे द्वंद्व का जवाब हो
वो ही जो मेरे बिखरते जीवन की आस हो!
कोई आये,
मेरे दर्द को समझे,
मेरे दुखों को अपनाये!
कोई तो हो
जो अर्क से अर्क का परिचय कराये.
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