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आत्मनिरीक्षण

ark vani
ark vani
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आत्मनिरीक्षण

बहुत हुई अब ये नीरसता
पशुओं सी प्रवृति
और चारित्रिक निर्बलता ।
आवेगों से निर्मित विचार,
फिर लिए तुच्छ निर्णयों से ग्रसित
विषयों में संलिप्तता ।

सब कुछ तो स्पष्ट था,
ज्ञान चक्षु थे
पर बुद्धि, विवेक नष्ट था।

मन पर बुद्धि का नियंत्रण
कहीं दिग्भ्रमित था, निष्प्रभावी था,
इसलिए अशांति, अस्थिरता को निमंत्रण,
अवश्यम्भावी था ।

आये मधुमास कई
नयी कलियाँ खिलीं
नयी कोपलें खिली
नए वर्ष के सुस्वागत को
कभी मदिर-नयन हिरणों के वक्ष,
भरे प्रिय के आवाहन भर से ।
माधुर्य प्रेम की हाला पी ली
जैसे रुक्मणी के अधरों ने मधुसूदन के कर से ।

कभी स्वर्णाभ हिमगिरि ने
काँच सी त्रुटिरहित आभा से
दर्पण दिखलाया
समझाया ,
पर विषयों पर आसक्त मन
प्रकृति के उन सुलभ संकेतों को
समझ नहीं पाया –

कि….
कैसी दिव्य अनुभूति
अहो !कैसी सुखद कल्पना!
स्वयं से साक्षात्कार न हो पाने की
थी जो दुसह वेदना,

उस वेदना को एक पल में स्वर मिला
वर्ष की पहली सुबह
प्रतिज्ञा को अवसर मिला…

जिन विषय विकारों से
मन क्षुब्ध है
ह्रदय विदारित है
और अन्तर्भावों में अविरल उठती
घोर निराशा से मन प्लावित है

उन मृत्यु सरीखी आकाँक्षाओं
के घृणित आवरण से
खुद को बाहर लाना होगा
नव जीवन का संकल्प लिया है
उसे निभाना होगा………….

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